गुरुवार, 31 मार्च 2011
बुधवार, 30 मार्च 2011
रविवार, 27 मार्च 2011
कि ये खूबसूरत ख्वाब तुम्हारा ही है
प्रिये
हमेशा
ये खुबसूरत ख्वाब,
पूरा होने से पहले ही,
क्यों अपनी आँखे खोल लेती हो तुम ,
मुझे हकीकत बनकर,
दिल की दहलीज़ तक आने से,
पहले ही
क्यों रोक देती हो तुम ?.
क्यों तुम्हे यकीन नहीं
कि ये खूबसूरत ख्वाब तुम्हारा ही है ,
इस ख्वाब को तुम्हारा होने के लिए.
क्या - क्या परीक्षाएं देनी होगी |
प्रिये
कभी तो अपनी किस्मत पे भी यकीन करो,
ये हंसी ख्वाब तुम्हारा है ,
और सदा तुम्हरा ही रहेगा,
बस तुम्हारा |
शनिवार, 26 मार्च 2011
आलौकिक स्नेह
मित्रों ! पिछले कई दिनों से बड़ी अध्यात्मिक पुस्तकों से जुड़ गयी हूँ और गीता के बाद अब भागवत , संकल्प ले कर पद रही हूँ, और सच कहू तो मुझे जितना अनुराग ईश्वर से कभी नहीं था अब होगया है और उसी अनुराग से ओत -प्रोत ये कवितायेँ सिर्फ शब्द नहीं मेरी आत्मा में बसा उनके प्रति अनुराग है ,समर्पण हैं , श्रद्धा और विशवास हैं | मेरा उनके श्री चरणों के प्रति अनुराग है | जीवन में कई बार हमें बड़ी अलग अनुभूतियाँ होती हैं और मुझे कई बार अपने राम के यथार्थ दर्शन किसी न किसी रूप में हुए हैं |इसलिए मेरा आत्मीय सपर्पण अपने राम के नाम |
नहीं खोज रही किसी वन में ,
नहीं खोज रही किसी तन में
मेरे राजीव लोचन तुम्हे तो पाया है
सदा अपनी आत्मा में ,
बनाकर उसे पावन धाम .
ये तन तेरा मंदिर ,
ये आत्मा तेरे चरणो की गुलाम .
प्रभो ,
कैसे चले आए हो ?
इस बावरी के ध्यान |
अभिभूत हूँ तुम्हे अपनी आत्मा में पाकर .
मेरे श्री राम
सब कुछ तुम ही हो ,
मेरी भावना ,
समर्पण ,
पूजा ,
विश्वास
अंतस का उजाला और
मुक्ति का अंतिम धाम |
मेरे राम !
क्या मांगू ?
तन की इच्छा नहीं
ये काया तेरी दासी ,
ये रूप चितवन तेरा गुलाम ,
धन,पुत्र ,सम्मान
ये सब तो अब मेरी सोच से परे हैं |
बस सदा रखना
अपने चरणों का
गुलाम
यही विनती करती हूँ |
मेरे
श्री राम !
सीता - राम सहित सदा बसना
और बनाना मेरी आत्मा को भी अपना धाम |
ओ मेरे राम ,
बस राम !
राम !
शुक्रवार, 25 मार्च 2011
बुधवार, 23 मार्च 2011
आलौकिक स्नेह
प्रभु मेरे !
तेरे एहसासों के साए में,
पल रहा प्यार मेरा ,
तेरी खोमोशी में,
पल रहा एक अनुराग मेरा.
सोचती हूँ कभी कहते नहीं ,
कोई इजहार नहीं
फिर तुम्हारी आँखे क्यों मुझसे बात करती हैं ?
बिना कहे भी ,
ये दिल से दिल के बीच कौन सा यकीन पल रहा है ,
ये यकीन क्यों है !
ये जान कर जी रही पल -पल सिर्फ मैं तेरे लिए |
तुम्हारे दिए हर परिवर्तन को महसूस करती हूँ ,
और सोचती हूँ क्यों बदल गए भगवान मेरे
इतना लाड क्यों बरसाने लगे प्रभु मेरे !
इस बावली पर
अभिभूत हूँ तुम्हारे इस आलौकिक स्नेह से ,
कृतार्थ कर दिया ,प्रभु !
इस पागल का स्नेह
अपने चरणों में स्वीकार करके |
अब मुझे डर नहीं, मेरा मोक्ष होगा कि नहीं ,
वह मोक्ष होकर मुझे तेरे कदमो की सेवा ही मिलेगी
प्रभु मेरे !
कृतार्थ कर दिया तूने मुझे
धन्य हूँ मैं तेरे नाम से .
मेरे प्रभु,! मेरे राम !
बस यूँ ही मेरी आत्मा में वास करना ,
मुझे अपने लिए यूँ ही बौराए रखना ,
अपने चरणों यूँ ही स्थान देना ,
इतनी ही विनती है |
मेरा रोम -रोम ऋणी रहेगा तेरा
तेरे इस संसार में अब कोई ख्वाहिश नहीं ,
मेरे प्रभु , मेरे राम
मंगलवार, 22 मार्च 2011
मेरे राम
मेरे राम , मेरे आराध्य ,
जब भी ये आत्मा कराह उठती है ,
मैं चली आती हूँ तुम्हारे कदमो में ,
और हर बार तुम,
एक विशाल आत्मा के ,
अधिपति बनकर मुझे ,
और मजबूती से खड़ा कर देते हो|
और खीच लेते हो अपने चरणों में ,
बह उठती है इन आँखों से अश्रु धार,
तुम्हारे चरणों को,
अपने अश्रुओं से धोने के लिए .
मेरे राम
मेरा सारा दर्द ,सारी वेदना
तुम्हारे मेरे मस्तक पर हाथ रखते ही
चली जाती है .
और सिर्फ रह जाती है ये अश्रु धार,
तुम्हारे कदमो को अपनी निष्पाप भक्ति से धोने के लिए |
कभी लगता है आज भी मेरी भक्ति में ,
श्रद्धा में कोई कमी तो नहीं ,
जो तुम देते हो ये अश्रुधार
इन आँखों को ,
मेरे राम , मेरे आराध्य
मेरे पास तेरी भक्ति के खजाने के सिवा
कुछ भी नहीं
इसलिए मुझे सदा तुच्छ जान
आशीष देता रह |
मेरे भगवान , मेरे राम
इन आँखों में ये अश्रु न रहें तो कैसे
धो सकूंगी तेरे चरणों को ,
मेरे राम ,
इसलिए मुझे दर्द दे ताकि निकलती रहे आह
और में सदा बनी रहूँ ,
तेरे करीब , इन चरणों में
मेरे राम ,
मेरे आराध्य
सोमवार, 21 मार्च 2011
इन खुली आँखों से सपना
इस नीले आकाश को ,
देखते- देखते ही ,
में खोजती हूँ अपने ही अंतस में
तुम्हारे साथ को,
और देखने लगती हूँ
इन खुली आँखों से सपना |
हां ,एक खुबसूरत सपना ,
तुम्हारे काँधे पर सर रखकर
भूल जाती हूँ सारी दुनियां
और तुम मेरे हाथो को थामे
गुनगुना रहे होते हो ये गीत .
तेरा मेरा साथ रहे ,
तेरा मेरा साथ रहे धूप या छाया ...
शनिवार, 19 मार्च 2011
रात बन बेठी हैं चाँद का घूंघट
रात बन बैठी है चाँद का घूंघट .
और इस चाँद केघूंघट में ,
राधा को इन्तजार
अपने कान्हा का ,
कि कान्हा आयेंगे
और उसके चाँद से मुख से घूंघट उठायेंगे .
इस आस में राधा करे इन्तजार
अपने कान्हा का ,
कर सोलह सिंगार |
वो कान्हा बड़ा निर्मोही ,
जब भी राह तके राधा ,
वो दे अंखियन को आंसू .
और जब आए सामने
राधा दे मुस्काय
ओ कान्हा
तेरी राधा बड़ी पगली ,दीवानी
तू काहे सताए करके मनमानी ,
ये रात नहीं आएगी दोबारा
कि कान्हा आज सजी है घूंघट में
तेरी चांदनी राधा |
शुक्रवार, 18 मार्च 2011
श्याम आज तो होरी
मन का मयूर नाचे छम - छम
के आगये राधा - रानी तेरे प्रीतम.
आज वो तुझे छू जायेंगे |
मन की हर कसमसाहट मिटा जायेंगे |
अरे पगली ,
कान्हा के आने से
पहले करले सोलह सिंगार
पैरों में पायल ,
सांसो में सरगम और
दिल में कान्हा को बसाये ,
आज तो तू धड़का दे तन मन श्याम का ,
अपने घनश्याम का .
कान्हा तो काला,
और तू राधा चाँद चकोरी
कान्हा कँहा टिक पाएंगे ,
आज तेरे घनश्याम
कि आज तो होरी है .
और कान्हा की राधिका कोरी हैं |
तो काहे लजाएँ अपने श्याम से
आज तो रंग लगाने दे ,
अंग - अंग भीग जाने दे,
रंग में रंग ,और मन से मन,
आज मिल जाने दे ,
राधिका गोरी
अब खुल के बोल ,
हाथ गुलाल रंग बिरंगी ले कर बोल,
कि श्याम आज तो होरी हैं |
ये राधिका तोरी हैं |
पट तो गै रानी
गोकुल के घनश्याम
मीरा के बनवारी
हर रूप में तुहारी छवि
अति प्यारी
मुरली बजाके
रास -रचाए |
और कह ग्वालों से
पट तो गै रानी
अरे कान्हा ,
मीरा तो प्रेम दीवानी
और राधा दरस दीवानी
दोनों ही तेरे अधीन ही
फिर तू काहे कहे
पट तो गै रानी|
वो महासागर
हर बार एक नया सवाल पैदा करता हैं|
क्या दुनिया वेसी हैं ?
सुनहरी जेसी हर तरफ दिखाई देती हैं
या
दो रंगों वाली ,
सुनहरे पलों वाली या ,
उसके पीछे छिपी ,
बिलकुल काली और स्याह ,
एक नन्ही सी बूंद
क्या समझ पायेगी इस दुनिया के महासागर को ?
नहीं इन्ही अनसुलझे सवालों में
डूब जायेगी वो !
इस दुनियां के महासागर में ,
खो जायेगी कही ,
अपने अस्तित्व को सागर में डुबोये ,
और नन्ही - नन्ही बूंदों से
ही तो भरा होगा सागर,
और कहलायेगा
वो महासागर|
बुधवार, 16 मार्च 2011
सपने
सपने
जब सत्य के धरातल पर ,
सत्य का धरातल यानी दुनियां ,वास्तविकता }
आकर टकराते हैं,
और टूटते हैं ,
तो बहुत तकलीफ होती हैं |
ये जान कर भी,
मन देखना चाहता है सपनें !
लगता है कितनी कडवी हकीकत,
पर क्या करे?
दुनियां ही कुछ इसी तरह की हैं |
पर मन है कि
सपनो के पीछे भागा फिरता है |
वो कुछ नहीं देखना चाहता,
सिर्फ अपने ही नजरियए से.
दुनियां को देखना चाहता हैं .
और, जब सपने टूटते हैं तो तड़प उठता है |
कैसा है ये बांवरा मन ?
हर बार दुनिया के,
पिंजरे से उड़ कर
बस अपनी ही हांका करता है |
डरते डरते उड़ना तो चाहता है.
पर अनजाने भय से,
सहम -सहम कर
बढता है |
और सपना पूरा हो,
इससे पहले ही सवेरे की आँख खुल जाती है ,
और जिन्दगी लौट आती है .
अपनी हकीकत में |
और वो सपना दम तोड़ देता है.
उन्ही उनींदीं आँखों के पीछे
और सुबह,
चाय की प्याली और श्रीमान के साथ ,
मैं कह रही होती हूँ -
हे ईश्वर !
अच्छा हुआ
ये एक सपना था
धीरज !
शनिवार, 12 मार्च 2011
शिकायत
शिकायत हैं उनको की,
में दर्द पे कविता नहीं कहती !
केसे कहे उन्हें के दर्द का
तो समन्दर हम साथ लेकर जीते हैं |
जो नहीं हैं उसको तो हम ढूंढा करते हैं ,
कहते हैं खोजने से खुदा भी मिल जाया करता हैं |
जानती हूँ,
स्नेह के अलावा भी,
बहुत कुछ हैं ऐसा हैं ,
जिसपे कविता लिखी जा सकती हैं |
पर क्या करू?
मेरे दोस्त, भूख और गरीबी पे सिर्फ,
कविता लिखने से वो खत्म होती तो बात ही क्या थी |,
ये सब तो हमारे पास हैं न जाने कब से !
इसीलिए
तो में लिखती हूँ
कविता स्नेह पर,
जो हमारे पास कम होता जा रहा हैं |
जो अभी खत्म नहीं हुआ,
उसे रोका जा सकता हैं|
और जो खतम हो चुका हैं ,
उसे कविता लिखकर,
नहीं रोका जा सकता मेरे दोस्त!
क्योकि कविता लिखने से ,
भूखे को रोटी नहीं मिलेगी
हां लेकिन,
एक मीठी कविता सुनने,
या,
पड़ने से कुछ पल के लिए वो
अपनी भूख और गरीबी भूल कर,
कुछ देर ही सही मुस्कुरा तो लेगा |
बुधवार, 9 मार्च 2011
ओ पुरुष
महिला दिवस पर ख़ास
ओ पुरुष
बहुत कुछ बदला हैं तुमने
हां ,
कब तुमने ,
एक अल्हड लड़की को प्रेमिका बना दिया |
और एक पल में पत्नी भी|
कितना कुछ बदला हैं तुमने
वो कभी शिकायत भी नहीं कर सकी ,
सुनती ही रही,
सहती ही रही ,
कभी एक अच्छी बहु बनने के लिए ,
तो सहती ही रही,
एक अच्छी बेटी बनने के लिए |
हसरतो को मन में लिए,
घंटो तकिये पे सर ओंधा किये
.रोती ही रही |
कभी तुमने पूछा भी नहीं
फिर भी हर सुबह उतने ही स्नेह से ,
उसने तुम्हारे लिए खाना बनाया,
और मुस्कुराते हुए चाय की प्याली दी ,
सोचती रही की काश कभी तो होगा एक दिन मेरा भी ,
मार दिया तुमने अन्दर की हसरतो से भरी लड़की को एक अच्छे बेटे बनने के लिए .
कहा गया वो प्रेमी ?
ये दुद्ती हैं हर औरत !
कितना कुछ बदलते आये हो,
पुरुष तुम समर्पण के नाम पर ?
कितनी हसरतो का गला घोट दिया हैं,
तुमने रिवाजो के नाम पर?
फिर भी औरत हर बार इसी आस में,
की एक दिन तो मेरा होगा
वो मुस्कुरा के पी जाती हैं अपने आंसू
और अलसुबह ही मुस्कुरा के देती हैं तुम्हारे हाथो में चाय की प्याली और नाश्ते की प्लेट ,
ये सोच कर ही की तुम्हारा दिन खराब न हो
वो सजाएँ रहती हैं
अपने होठो पे
एक मुस्कुराहट
ओ ,
पुरुष तुम्हारे लिए
सोमवार, 7 मार्च 2011
मेरे मासूम फरिश्ते
नहीं देखा मेनें तुम्हे
ओ मेरी मासूम सी चाहत ,
बस इन्तजार कर रही हूँ तुम्हारे आने का
मेरे मासूम फरिश्ते !
इन्तजार कर रही हूँ अपनी पूर्णता का
अपने कानों में तुम्हारे गुगुनाने के एहसास का
हां , अपने माँ होने के एहसास का
कब आओगे तुम ?
सालों से प्रतीक्षा करते करते पथरा गयी हैं मेरी आँखे
ओ मेरे नन्हे फ़रिश्ते
कि तुम आओ तो में लुटा दूँ ,
अपने वात्सल्य की बयार ,
और सालो से सूखा पडा दुलार,
मेरे नन्ने फ़रिश्ते अब चले आओ
अब चले आओ
सुनकर अपनी माँ की करुण पुकार |
रविवार, 6 मार्च 2011
केसे कहूं तुम पर कविता सागर ?
वो कहते हैं कि तुम मुझपर कविता क्यों नहीं कहती ?
सोचती हूँ ,
क्या सागर पर भी कोई कविता लिखी जा सकती हैं ?
क्या कहेगी वो चट्टान
जो सदियों से सागर के किनारे आने की बाट जोहती आ रही है ?
जो सदियों से सागर के किनारे आने की बाट जोहती आ रही है ?
सागर हर दूसरे पल उसे आकर एक नया दिलासा दे जाता है
कि में तुम्हारे करीब ही हूँ और अभी जाकर ,आता हूँ |
कि में तुम्हारे करीब ही हूँ और अभी जाकर ,आता हूँ |
और सागर के एक बार फिर लोट आने की एक मासूम सी चाहत लिए ,
चट्टान फिर वही आ खडी होती है
फिर एक नए इन्तजार के साथ |
चट्टान फिर वही आ खडी होती है
फिर एक नए इन्तजार के साथ |
केसे कहूं तुम पर कविता सागर ?
तुम तो समझ ही नहीं पाते एक मासूम सी चट्टान की भाषा ,
तुम तो समझ ही नहीं पाते एक मासूम सी चट्टान की भाषा ,
तो कैसे समझ पाओगे मेरे इन शब्दों को ?
वो कहते हैं मुझपर कविता ,
प्रिये ,
कितनी खूबसूरत हो तुम,
कितनी खूबसूरत हैं तुम्हारी मुस्कुराहटें
और
वो निस्वार्थ चाहत ,जो मेरी बंदगी करती हैं |
मेरी निगाहों से जो चाहत
तुम्हारे लबों पे मुस्कराहट बन कर बिखर जाती हैं |
क्यों छुपाना चाहती हो तुम ,
अपने ह्रदय की उस अप्रतिम मुस्कराहट को ?
केसे छुपा सकोगी तुम अपनी लहराती जुल्फों में ,
मेरी चाहत को
प्रिये ,
अपने लबों से कहो न कहो पर मुझे यकीन हैं ,
मैं मुस्कराहट बन
यूँ ही तुम्हारे लबों पे खिलता रहूँगा |
यूँ ही तुम्हारे लबों पे खिलता रहूँगा |
बुधवार, 2 मार्च 2011
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तेरी तलाश
निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................
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ये कविता किसी बहुत बड़े दार्शनिक या विद्वान के लिए नही है | ये कविता है घर-घर जाकर काम करने वाली एक साधरण सी लड़की हिना के लिए | तुम्...
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गोकुल के घनश्याम मीरा के बनवारी हर रूप में तुहारी छवि अति प्यारी मुरली बजाके रास -रचाए | और कह ग्वालों से पट तो गै रानी अरे कान्हा , मी...