मेरे राम !
आज पुलकित हैं मन करके
तुम्हारे चरणों में प्रणाम
में जानू में खोज रही वो कस्तूरी ,
जो बसी मेरी आत्मा मे ही बन कर राम
मे जानू मे विचलित हूँ !
पाकर तुम्हरा अपनत्व कुछ बिखर पड़ी हूँ !
रूह से फुट पड़ीं हूँ !
अश्रु धाराओं से बिखर पड़ी हूँ !
पाकर कुछ पल तुम्हारे आत्मीय अपनत्व की छाँव
हां टूटी कश्ती को स्नेह की एक धार जीवन दे ग्ई
तुम्हरा हर आदेश मेरी आत्मा ने माना हैं
मानूंगी सदा जो तुम ने कहा
,दिया इस आत्मा को ज्ञान
आज इस जीवन का वही करुँगी मे काम
मुझे नहीं आया समझ अपना भला बुरा
इसीलिए भूल गयी थी राह जीवन की
भटकी हूँ रास्तों से
जिसकी राहों का दीप आप स्वयं
हो मेरे राम !
क्यों अन्धेरा हो इस जीवन
फिर .................................
मुझे दे अपने स्नेहिल अपनत्व की छाँव
कुछ देर इस मासूम मन को बिखर जाने दो
ढलते अश्को को अपने कदमो पे रिस जाने दो
मेरा निश्चल स्नेह ही मेरी पूंजी हैं तुम पर ही ये बह जाने दो
जो कहा !
मेने तुम्हारी खामोश सदाओं से,
सब इस रूह ने सुन लिया .
सदा विशवास किया हैं तुमने
सदा रखना ,
अपनेअसोम स्नेह आशीष
से इस मस्तक पे तुम्हारा हाथ
इतनी ही विनती हैं बस
जंहा खड़ी थी वही रहूंगी !
अपने सात जन्मो के कर्तव्य को निभाती चलूंगी
जो तुमहरा हैं ये आदेश तो मे ये ही करती चलूंगी
धन्य हूँ !
जानते हो मेरे राम !
जिसने पाया हैं
तुम्हारे चरणों का ये आशीष !
आत्मा का आत्मा को स्नेहिल
वंदन करो स्वीकार
मेरे राम !
श्री चरणों मे तुम्हारी अनु
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