मेरे कान्हा !
मेरे गोपाला !
मेरे ठाकुर !
अब ले चलो संग अपने,
बैकुंठ धाम
ये दुनिया नहीं मेरे जेसे लोगो की
सब और सिक्के के दो पहलु हैं
एक और कुछ एक और कुछ
में पगली एक ही समझती थी
दोनों और
जब जाना तो कान्हा बहुत हुआ
अब नहीं जीना इस और
ले चलो कान्हा!
मुझे किसी भोर !
संसार में एक आप ही हो,
जिसमे ये साहस हैं कान्हा !
की मुझे मुक्त कर सके
दे दो मुक्ति अब मुझे तुम
ओ मेरे कन्हाई !
अब तो कभी तो दया करो,
इस और भी तुम
मेरे कृष्णा !
आप की अनुभूति पुकार रही कान्हा
अब सुन लो
हां अब सुन लो
मेरे गिरिधर गोपाल !
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