शुक्रवार, 17 जून 2011

हे मुरलीधर!

तुम्हरे अधरों पे जब
ये मुरलिया साजी
हे मुरलीधर!
कोस्तुभ धारी !
गोकुल के वासी!
रख तुम्हारे काँधे पे सर
राधा ने ये दुनिया त्यागी
इस अमृत में खोयी राधे
भूल गयी सब काम जो साधे
होश नहीं तन मन का
जो स्नेह मिला हैं प्रियतम का
तेरी मुरली की धुन पे नाचे
गोपियाँ सारी
फिर क्यों हो जाऊं में बावरी
गिरिधारी !
रूठ जाओ जब तुम तो ,
सुनी पड़ी रहे दुनिया सारी
इसीलिए तो राधा मनाये तोहे
गिरिधारी !
मेरे कोस्तुभ के स्वामी
तुम जानो अपनी की मुरली की धुन का जादू
केसे कित समजाऊं तुम्हे कान्हा जब मन ही हो जाए बेकाबू
कान्हा अब रूठे रहो खुद से तुम
हां अपनी ही होठों की बसुरिया से गूम
मनाएं सो बार ,गोपियाँ
लाख -लाख हाथ जोडत
पैर पडत हैं राधिका तोरी
अब तो इन होठों पे सजालो मुरलिया प्यारी
काहे रूठे बेठे हो अब भी गिरधारी
सूना पडा हैं तुम्हारी मुरलिया बिन ये गोकुल सारा
फिर एक बार छोड़ हट ,
सजा दो जीवन की धुन से ये धाम
हां बनवारी राधा कह -कह के हारी
फिर खो जाने दो काँधे पे रख के सर
अबकी बार छेड़ो ऐसी सरगम
भूल जाएँ संसार जीवन के सब दुःख और भ्रम |
आप के श्री चरणों में
अनुभूति |


मेरी साधना के समय मेरा कान्हा मुझे जिस रूप में दिखता हैं वो बस शब्दों में फूटता चला जाता हैं , मन के भाव जेसे रुकते ही नहीं सरिता बन बस उमड़ आते हैं ,न तुक देखते हैं न छंद ,मेरा मन मेरी आत्मा बस अपने कृष्णा के स्नेह में डूबी रहती हैं |संसार ने न जाने कितने भावों से उनकी भक्ति की हैं लकिन मेने अपने कृष्ण से उनकी सखी बनके सिर्फ उनसे प्रीत की हैं अनन्य स्नेह किया हैं |

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तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................