मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

अमलतास

 दूर से आकर,
कभी कोई छोटी ,
 कभी कोई बड़ी लहर
जेसे किनारे को टकरा जाती हैं 
और भीग जाता हैं 
किनारे का रोम -रोम 
कुछ ऐसे ही
बहुत दूर होकर भी,
मुझे भिगो जाती हैं 
  तुम्हारी मुस्कुराहट,,
उसकी गुनगुनाहटे 
 में किनारे की तरह खामोश भीग जाती हूँ 
उस असीम  स्नेह में अपने अंतस तक ,
तुम्हारा वो मुझसे इजाजत मांगना 
मेरे मन की श्रद्धा को ,
स्नेह को और अधिक 
मीठा कर देता हैं , बड़ा देता हैं |
स्नेह का ये घडा,
अब भर के बहने लगा हैं 
और मेरे इन सजल नैनों 
में जाग उठा हैं जीवन एक बार 
लगता हैं जीवन में,
एक बार फिर बसंत लौट आया हैं
और सज गया हैं जीवन ,
अमलतास कीतरह
पीले फूलों से
हाँ  वही अमलतास जँहा
दुष्यंत ने किया था,
शकुन्तला से प्रणय निवेदन
हां भीग जाती हूँ मैं
तुम्हारी खनकती मुस्कुराहटों  से
अपने अंतस तक |
अनुभूति






1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रेममयी भावपूर्ण रचना..

तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................