ओ कान्हा !
सुनी पड़ी हैं ममता मेरी ,सूना पडा वात्सल्य ,
सुन लो अपनी पगली की, अब तो कोई करुण पुकार |
तरस -तरस अब तो तृष्णा ,भी शांत हो गयी हैं ,
ये सोच के सपनो में ही ,खुश हो लेती हूँ
के मेरे आंचल में भी हैं
तुमसा कोई रूप सलोना ,नन्हा
कृष्णा !
इस नारी की प्यास कब बुझाओगे ,
मुझे माँ कहने वाला ,कब मेरे आंचल में लाओगे |
देख किसी का नन्हा रो पड़ती हूँ हर बार
हर बार छिप के रो लेती हूँ |
इस बार सामने तुम्हारे फट पड़ी हैं ,
ये विदीर्ण आत्मा मेरी|
ये विदीर्ण आत्मा मेरी|
ओ कान्हा !अब मत तरसाओ ,
अब मत तड़पाओ
न लो इस पगली से अब कोई अग्नि परीक्षा
क्यों हर परीक्षा को मेरी ही नियति तुमने बना डाला ?
मेरे जीवन से तुमने नारी होने का ये सुख भी मिटा डाला
प्रभु अब तो मुझपे तरस खाओ
बन के वात्सल्य की घटा अब तो मेरे आँगन भी बरस जाओ
अब नहीं होती मुझसे कोई परीक्षा सहन
मुझमे सामर्थ्य नहीं रहा अब तुझसे लड़ने का
हारी बेठी हूँ तुम्हारे इन श्री चरणों में
प्रभु !
इस तन्हाई में मुझे भी ,कोई अपना दे जाओ
एक बार ,बस एक बार ,मेरे आंचल को भी अपने स्नेह से भर जाओ |
न माँगा तुमसे कभी कुछ आज मांगती हूँ इन हाथो को जोड़ तुमसे करू करुण पुकार .........
ओ कान्हा !चले आओ चले आओ इस पगली के द्वार |
कोई नहीं अपना मेरा
दे दो अपनी ही खून की बूंदों से मुझे मेरा अस्त्तिव ,
जिसे मुझसे कोई न छीन सके सके मुझे वो मेरा अपना
हां मेरा अपना |
कँहा कमी हैं मेरी भक्ति में ये बतलादो
या तो मुझे मेरा अपना कान्हा मिलवा दो
और नहीं ये मेरे लिए तो मुझे अपने चरणों में बुला लो |
मेरे कान्हा !तुम्हारी पगली अनुभूति
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