गुनगुनाती हवा थमी पड़ी हैं ,
सब कुछ होकर भी जिन्दगी बेनूर सी पड़ी हैं|
खवाब जो दिखा दिए तुमने इन सुनी आँखों को
हर पल बेताब पड़ी हैं जिन्दगी उन्हें पूरा करने को|
अपने आप से ही ये कशमकश क्यूँ हैं ?
मुझे तुझसे इतनी मुहब्बत क्यों हैं ?
सोच- सोच के ही मिटी जा रही हूँ में
अब केसे कहू तुझसे की हँस के जिए जा रही हूँ में |
दूर रह के भी तुझसे बाबस्ता हूँ में ,
ये महज इतिफ्फाक हैं
या कोई नया नासूर हैं |
जिदगी क्यों हर पल नया इम्तिहान लिए जाती हैं ,
सामने खड़ी हूँ तेरे, फिर भी क्यों तिल-तिल मुझे ये मारी जाती हैं |
केसे कह दूँ की महोब्बत नहीं तुझसे मेरे मसीहा ,
ये आग हैं तो भी में मर के जिए जाती हूँ कुछ इस तरह |
तुझसे दूर रहकर ही तेरी इबादत करना मेरा नसीब हैं ,
ये सोच कर ही तेरी बंदगी हँस के किये जाती हूँ |
मिलेगा सुकून उन बाहों का मेरे हमदम
ये यकी नहीं मुझको मेरे सनम |
तुम पे यकीं हैं पर किस्मत से डरती हूँ
कही कोई शिकन ना आ जाए तेरे चेहरे पे ,
मेरी मुहब्बत से ये सोच के ही
खामोश रह के दूर से इबादत करती हूँ |
कही कोई शिकन ना आ जाए तेरे चेहरे पे ,
मेरी मुहब्बत से ये सोच के ही
खामोश रह के दूर से इबादत करती हूँ |
अनुभूति
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