जिसे कभी तुमने समझा ही नहीं
वो नारी कर चुकी हैं जीवन से विद्रोह ,
जिसे समझते ही रहे एक बेजान गुडिया
एक छोटी सी धारा ,
न जाने कितने जीवन संघर्षों
के बाद ले चली हैं विशाल रूप
मन की सरिता का
अल्हड सरिता को बह जाने दो ,
तोड़ चुकी हैं वो ,
सारे बंधन रिश्तो के
भावनाओं के ,
त्याग के ,
अब वो बह चली हैं अपने पुरेवेग से
अपने अंतिम बिंदु की और
अपने ईश्वर के मिलन को
अपने सागर के महामिलन को |
इन रास्तो में ना जाने ,
कितने तूफ़ान और आयंगे ,
इतना आसान नहीं अभी उस ईश्वर को पाना ,
लेकिन अंतिम शास्वत सत्य हैं
सरिता से सागर का महामिलन
मेरे प्रभु तुमको आना ही होगा
दिखाना ही होगा मुझको अपना साकार रूप
करना ही होगा मेरी इस अतृप्त आत्मा से
महामिलन |
अनुभूति
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