शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

विदीर्ण मन ,

विदीर्ण मन , 
अपने लिए ढूंढ़ता हैं ,
उम्मीदों का आकाश ,
नहीं !
ढूंढ़ता  हैं अपने लिए स्नेह की छाँव |
कतरा -कतरा,
जुड़ -जुड़ के बन सका हैं विदीर्ण मन
निसंकोच कहती चली गयी  में,
तुमसे जीवन सत्य संगीन .
सोचा न भाला बस कह डाला ,
आगे सोच भी न पाई 
तुम्हारे मन की वेदना .
जब सोचा तो तार -तार हो गयी  हूँ में ,
अपने ही दिल के कोने से दागदार हो गयी  हूँ में 
क्या कहू ?
केसे करू ,शिकायत भी अपने आप से ,
उलटा कह के भी ,
दर्द का खंजर मेरे सीने में चुभ रहा होता हैं |
विदीर्ण मन सिने के लिए,
में तुम्हारे स्नेह का सुई धागा ढूंड रही  होती  हूँ |
अनुभूति

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