भागवत का एक सीता -राम के अनन्य प्रेम, समर्पण का संवाद
राम ने बड़े दुखी होते हुए सीता से कहा
प्रिये ,
तुम संग सीते ,
प्रीत जन्मो की मेरी ,
पर मिथला नंदिनी ,
ये दुनिया हैं निष्टुर ,कठोर ,कोरी
कहती मुझसे सीता अपवित्र हैं
,इसे निष्कासन दो
केसे कहू प्रिये तुमसे
,ये घोर वेदना मन की
सीता जी ने अपने प्रभु राम जी के मुख मंडल पे चिंता और आत्मा को दुखी देख कहा
प्रभु
में तो जन्म -जनम की बंधिनी तुहारी
फिर क्यों कहे हैं आप ,इस दुनिया को निष्टुर सारी
प्राणनाथ मेरे ,
आप इस जगत के भी तो हैं नाथ
मुझे ज्यादा अबला तो ये प्रजा तुहारी
ये क्या समझ सकेगी नियति हमारी ?
आप वो निभाइए जो धर्म - रीती हैं राजा की न्यारी |
में नहीं देख सकुंगी अपकीर्ति तुहारी नाथ
दुःख - सुख सदा साथ रही ,रहूंगी सदा
केसे अलग हो सकेंगी आत्मा नाथ
ये केसे समझाउंगी इस दुनिया को रघुनाथ
सहर्ष स्वीकार कर अपने प्राणनाथ की आज्ञा
सीता चली वनवास चुपचाप
अपने प्राणनाथ की आज्ञा कर शिरोधार्य |
भगवान राम अपनी पत्नी सीता से बहुत स्नेह करते थे ,और सीता जी अपने राम के प्रति जो समर्पण रखती थी उसे समझ पाना आसान नहीं और इस दुनिया के साधारण इंसानों के संभव भी नहीं |उनका स्नेह बड़ा आलौकिक था |भगवान राम का जीवन प्रेम की इस सुन्दर पराकाष्ठा को समझने का सुन्दर उदाहरण हैं |
और जो लोग कहते हैं की सीता को राम ने निष्काशन दिया उनका लिखना दोष पूर्ण हैं यानी स्नेह में समर्पण के उच्च भाव को वो समझ ही नहीं सके |
अनुभूति
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