एक शाम गंगा के किनारे बेठे मै ढूंढ़ रही थी
उसका अंत ?
क़हा है नहीं मालुम मुझको भी ,
हां लेकिन मै महसूस कर रही थी तुमको
ढूंढ़ रही थी उसके निर्मल जल मै तुम्हारा अस्तित्व
क़हा हो तुम मेरेमन ,मेरे अहसासों को रूह मै उतरकर
समझने वाले "...................."
कही नहीं हो मेरे पास यंहा इस निर्मल जल के किनारे तुम
इस पावन सरिता की तरह ही तो निर्मल है तुम्हरा मन
फिर भी क्यों नहीं दिख रहा इस पवन जल मै तुम्हरा अस्तित्व |
सोचती हूँ जीवन का कोन सा सवेरा होगा
जब इसी पावन गंगा के किनारे हम साथ होंगे और मै बड़ी शांत होकर
तुम्हारे काँधे पे रखकर सर इस प्रवाह को तुम्हारी आँखों से महसूस कर रही हुंगी !
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छी रचना
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