मानव तन के साथ परमात्मा ने अपने ही अंश के स्वरूप सबको एक पवित्र आत्मा से अलंकृत किया है ,
उन्ही अलंकारों की जीवन अनुभूति है रसात्मिका |
सबकुछ समाप्त होता हैं पर प्रेम यात्रा करता है
अपनी दिव्य चेतना के साथ
इस लोक से परलोक
वही यात्रा है रसात्मिका
जीवन के रोम-रोम में बसने वाले कान्हा का ज्ञान और स्नेह सागर हैं ,
मेरे शब्द मेरी आत्मा से फूटती अपने श्री हरी ! को पुकार हैं बस |
मेरे कोस्तुभ धारी !
जगदीश्वर ,श्री हरी !
अदिति को वरदान देने वाले ,
बलि को अपने वरुण पाश से मुक्त कर,
सुतल का अधिपति बनाने वाले
मेरे कृष्णा !मेरी भी सुन
मुझे नही मांगना देवी अदिति की तरह कोई पुत्र
मुझे देना हैं तो दो अपने आशीष और भक्ति का वरदान
ज्ञान का वरदान ,
अपने वचनों को निभाने की क्षमता ,
हे कृष्णा !
तुम तो अनंत हो कण-कण में समाये हो
तुमसा देने वाला कोन
तुम ही जो छीन धन जीवन के सत्य की राह दो
अपना अनुरागी भी तुम ही बनाओ और बेर करने वाला भी तुम बनाओ
तुम्हारी लीला तुम ही जानो ,
मेरे तो तुम ही कृष्णा!
तुम ही राम
तुम ही नीलकंठ हो
कभी एक पल में अंत स्नेह सागर नाम कर दो
और कभी आँखों के जगाए सारे सपने अपने ही साथ ले जाओ
तुम्हारी माया अनंत हैं
तुम्हारे बिना जीवन के सारे सुख निराधार
में परछाई नहीं ,सत्य रूप हूँ
एक भोतिक देह इंसान
क्यों चाहू कृष्णा !
में तुम्हे अपनी साँसों में जीवन में हर कर्म में
मुझे खुद भी नहीं पता
देखि हैं मेने निर्जीव मूरत ही तेरी अब तक
हो मेरे आत्मा को तेरा प्रत्यक्ष दर्शन
दो मुझे बस ये वरदान
तेरी चरण धुली में अपने मस्तक पे लगाऊं
तो ये जीवन ये सालो की तपस्या
अपना तिल -तिल जलना सब एक क्षण में भूल जाऊं
मेरे कृष्णा !
मुझसे ही क्यों रूठे पड़े हो !
क्या जाने हो मेरी लोगे परीक्षा कठिन तो ,
में छोड़ दू तेरी भक्ति का मार्ग कठिन
ये कभी ना होगा मुझे
भले ही तेरी भक्ति में यूँ ही में मिट जाऊं
जीवन मिला हैं जितना
बस तेरी अनुरागी बन ही बिताऊ |
श्री चरणों में अनुभूति
मेरी वफाओं की खुशबु घटी नही, और सयम के सांचे और विश्वास की आग में पकती और महकती ही जा रही हैं और में मदहोश हूँ हां में मदहोश हूँ ! तेरे नाम से ओ मेरे प्रियतम ! सारे संसार से अलग हैं मेरा सजना मेरा कोस्तुभ धारी ! हां मेरा मुरलीधर ! मेरा कृष्णा ! मेरा कान्हा ! हर रोज झाके रूप सुहाना दिखाकर मुझे भागवत के पन्नो से , कहे कान्हा ! काहे तू रोये !काहे तू मिटे इतना ! ज़रा देख पलट में तो कब से संग साथ खड़ा इतना समय हैं अभी ये साधना का सयम का एक दिन जरुर आउंगा तुने जो पुकारा मुझे अपनी आत्मा से हां थाम ले ज़रा अभी मुझे भी थम जाने दे हां रुक जरा वो फूलो से महकी फिजा तो आने दे | होगा तेरा मेरा अद्भुत मिलन ये अक्ष्णु विशवास रख इस साधना और विशवास की परीक्षा अभी हो जाने दे | अनुभूति |
मेरेकोस्तुभधारी!
इस भोर भी में बहाते -बहाते इन अखियन से स्नेह नीर
मांगू बस तेरा आशीष
संसार के हर इंसान के लिए तेरा मन खुला पडा हैं कृष्णा !
मुझसे हो तू क्यों रूठा पडा हैं
सबको मागा वर दिया हैं
मुझे एक बूंद को भी तरसा दिया हैं |
तेरा इन्साफ हैं या किस्मत का कन्हाई
में जानू तो तेरा आदेश और मुझे कुछ नहीं आया
और कुछ जान सकती
तो में शायद पा जाती दुसरो की तरह
तेरा स्नेह अपार
मुझे सिखा दो दुनिया की तरह बनना
मिटा दो जीवन से ये बेचेनी
दे दो मुझे भी मोक्ष इतनहीअरजहैंमेरीमेरेकृष्णा ! मेरेराम ! अनुभूति
वो उसे जेसे देखे संसार का हर भाव वेसा ही दिखता हैं |
एक सम्वाद भागवत जी से
भगवान राम को सबसे अधिक स्नेह उनके भाई भरत किया करते थे |जब राम जी ने वनवास स्वीकार किया तो भरत जी ने भी अपने को भी उन्ही के समान मानकर अयोध्या नगरी का त्याग कर दिया औरनंदी ग्राम में रहने लगे | अपना जीवन अपने भाई की तरह वनवासी बनकर बिताया |उन्होंने सारे राज सुखो का त्याग किया और अपने राम जी की चरण पादुकाओं की पूजा कर ,गो मूत्र में बनाकर जो का दलिया खाते थे वत्कल ही पहनते थे और पृथ्वी पर डाभ{एक प्रकार की घास }बिछाकर ही सोते थे |
जब भरत जी को ये पता लगा की राम जी वापस आ रहे हैं उन्होंने उनकी चरण पादुकाओं को अपने मस्तक पर रखा और सम्स्त पुरोहितो सहित भगवान राम की अगवानी के लिए गए |भगवान राम को देखते ही उनके आंसू छलक गए अपने अंतस की वो छिपा न सके और अनन्य स्नेह से भाव विभोर होकर वे अपने भगवान के चरणों पे गिर पड़े |उन्होंने अपने राम के चरणों के सामने उबकी चरण पादुकाएं रख दी और हाथ जोड़ कर खड़े हो गए भगवान ने अपने भरत को भाव विभोर होकर अपने गले लगा लिया और भरत जी ने अपने अश्रुओं से अपने राम जी का स्नेह अश्रुओं अभिषेक किया |
उनकी अपने राम के प्रति आस्था को देखकर आत्मा अनन्य भाव विभोरहो जाती हैं |
अपने ईश्वर से इसी अनन्य भक्ति और स्नेह का आशीष मेरी आत्मा भी अपने आराध्य राम जी के चरणों के प्राप्त करना चाहती हैं |
हे जगदपति !
मेरे कृष्णा !
मेरी ये प्रार्थना स्वीकार करना मुझे भी अपने जीवन में अपने वचनों ,सत्य और विशवास के लिए कठिन समय से लड़ने की शक्ति देना |
तुम जीवन्त हो मेरे रोम -रोम में
अपने झूले पे आँखे बंद किये में
इस सुहानी फिजा के साथ महसूस करती हूँ
तुम्हारी मिलो दूर से आती
तुम्हारे असीम स्नेह से उठती उन बूंदों को
और भीग जाती हूँ अपने अंतस तक
होकर आत्म आनंद विभोर
इस बदरी के साथ मेरी आँखों से बह उठता हैं ,
"तुम्हरा असीम स्नेह"
और मेरे लिए इबादत में खड़े जुड़े हुए तुम्हारे हाथो को देख
हो जाता हैं तुम्हारे चरणों के प्रति
समर्पित ,हां मेरी आँखों का ये नीर
में कृतार्थ हूँ अपने शिव को साक्षात् पाकर
हां आज सिमटी हूँ में ऐसे ही अपने अंतस में
जेसे प्रथम आलिंगन पे बेहद शर्म से धरती कठोरता से लिपटी हो
अपने स्नेह सागर से |
अनुभूति