लम्हा -लम्हा
रेत की तरह मेरे हाथों से फिसलता जा रहा हैं
हर लम्हा मुझे खिचता हैं तन्हाइयों में
वादियों में ,पहाड़ों में
एक एकांत से दुसरे एकांत की और
एक सजा से दूसरी की और
सजा वही हैं बस रूप अलग हैं तन्हाइयों का
लगता हैं लम्हा -लम्हा कुछ छुट रहा हैं
कुछ नहीं हें अपना ,
सारे अपनों के भेष में पराएँ हैं
सुख देने की चाह रखने वाले भी ,
अनजाने में दुःख दे जाते हैं उनको तो इसका इल्म भी नहीं
किसे कहू अपना किसे पराया !
दुनिया के फलसफे मेरी समझ से परे
न रूप समझ आये जिन्दगी का न रंग
इसीलिए ये संसार छोड़ रंग गयी हूँ
तेर ही रंग
कान्हा !
तुझमे अक्स ढूंढते हैं मेरे अपने
काश तुझसे जो स्नेह किया होता किसी ने
मेरे कृष्णा !
तो कोई समझ पाता आत्मा की ये पीड
हां छुट रहा हैं मुझसे कुछ
लम्हा -लम्हा
" अनुभूति "
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें