मेरे कृष्णा !
काहे दिया हैं इस आत्मा को ये घर
नाडीजाल से गुंथा ,मांस ,
हड्डी स्नायु और मज्जा से बना
ये भोग का घर ,
कब तक कैद रहेगा
ये आत्मा का पंछी
उड़ना चाहता हैं इस मिथ्या जगत से परे
तुम्हारे नीले आकाश में
मुझे ले चलो अब अपनी शरण
नहीं निभते खोखले रिश्ते
ले चलो मुझे दूर अपनी पनाहों में
अब नहीं करता अंतस स्वीकार
झूठे भावों को
मेरे श्री हरी सुनो इस विदिरण मन की पुकार
दया करो हे दयानिधे !
मेरे कृपा निधान !
श्री चरणों में अनुभूति
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