मेरे कृष्णा !
मेरे कोस्तुभ धारी !
न जाने कितने तूफ़ान उठते हैं और
में उसकी तूफानी लहरों में ,
बेबस सी कभी किनारे से टकराती और
कभी उसकी मझधार
में झूलती यूँ ही तेरे विशवास के सहार लडती ही रहती हूँ हर सास
अपने ही अंतस से
मात्र एक स्वप्न को हकीकत समझती में
जी रही हूँ एक तूफ़ान में
बड़ी जाती हूँ में तुम्हारे आदेश के पथ पे
तुम्हे नहीं पाती जब कृष्णा तो विदीर्ण हो जाता हैं मेरा रुदय
क्या चाहते हो मुझसे मेरे कृष्णा ?
नहीं जानती में तुम्हारे लेख
मानती हूँ तुम्हारा आदेश
बाकी सब शून्य हैं जीवन ,
अपनत्व खोजती हैं मेरी रूह
लेकिन सब मिथ्या हैं इस जीवन
श्री चरणों में अनुभूति
मेरे कोस्तुभ धारी !
न जाने कितने तूफ़ान उठते हैं और
में उसकी तूफानी लहरों में ,
बेबस सी कभी किनारे से टकराती और
कभी उसकी मझधार
में झूलती यूँ ही तेरे विशवास के सहार लडती ही रहती हूँ हर सास
अपने ही अंतस से
मात्र एक स्वप्न को हकीकत समझती में
जी रही हूँ एक तूफ़ान में
बड़ी जाती हूँ में तुम्हारे आदेश के पथ पे
तुम्हे नहीं पाती जब कृष्णा तो विदीर्ण हो जाता हैं मेरा रुदय
क्या चाहते हो मुझसे मेरे कृष्णा ?
नहीं जानती में तुम्हारे लेख
मानती हूँ तुम्हारा आदेश
बाकी सब शून्य हैं जीवन ,
अपनत्व खोजती हैं मेरी रूह
लेकिन सब मिथ्या हैं इस जीवन
श्री चरणों में अनुभूति
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