गुरुवार, 16 जून 2011

गिरधारी

कहना हैं किसे जाना हैं
प्रभु ! सब आप ने
ये जो कभी न तेरे चरणों को छु पाने की टीस हैं
वो केसे व्यक्त कर पाऊं तुझसे,
ओ कोस्तुभ धारी!
आप ने तो दे सहानुभूति नाम ,
अपनी आत्मा से  हटा दी छबी सारी, 
मुझे बता दे कान्हा तो में भी खीच के निकाल दू
इस तन से इसा आत्मा को , तेरी ही तरह ,
मेरा क्या दोष जो ,
में बना बेठी साँसों की डोर तुझे ओ कन्हाई !
में तो सह के भी मुस्काऊं .तेरी खामोशी , 
तेरी उदासी में सह भी ना पाऊं 
मुग्ध हु कन्हाई तेरी सरलता पे
छिपा न सके आत्मा,
तेरी मुझसे अपनी आत्मा की पीड़
हर सास से व्यक्त हो तेरी उलझनों की तस्वीर 
मेरा कुसूर तो मुझे आज भी नहीं पता मुझे
क्यों रूठा हैं कान्हा तू मुझसे?
नहीं मालुम पर ये जीवन की नयी सजा हैं 
वचन हैं मेरा में खुशी- ख़ुशी हर बात सहूंगी 
में जानू न रहंगी मेरी ये मुस्कुराहटें तो 
कान्हा कहोंगे भी नहीं मन ही मन
सहते रहोगें |
क्यों जुडी हैं तुझसे संसार छोड़ मेरी आत्मा ऐसी
नहीं जान सकी में गिरधारी 
अब जो सजा हो देते रहो गिरधारी !

अनुभूति


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