मेरी सुबह और सुबह का सूरज ,तेरा अक्स
रोज नया उजाला देते हैं,
तेरा अक्स , तेरे शब्द
तेरा अक्स कहता हैं चली आओ ,
थाम लूंगा में तुम्हे ,
एक बार निकल आओ इन अंधेरो से ,
हां तुम्हारे लिए,
मेरा गुनगुनाता हुया सपना इन्तजार करता हैं
कल मिल आई हूँ अपनी पुरानी यादो से माँ के घर
सोचती रही रात भर
क्या हवा से बात करने वाली ,
लडको की तरह पतंग काट देने वाली ,
बाईक चला कर लडको से रेस लगाने वाली ,
कट मारने वाली अनु
वो अनु जिससे बात करने का साहस ,
कोई लडका नहीं कर सकता था ,
वो जो कराते खेला करती थी
मुकाबला किया करती थी हर पल लडको से
मुकाबला किया करती थी हर पल लडको से
और सदा ही जीत जाया करती थी
वो उन्मुक्त चिड़ियाँ कँहा हैं जो लड़ा करती थी
अपने पड़ने के लिए , पल -पल जीने के लिए
वो कँहा हैं आज अपनी कविताओं में अपने शब्दों में
वो नहीं हैं क्या आज ?
वो नहीं हैं क्या आज ?
क्यों तुम हार गयी हो ?
जीवन में स्नेह नहीं मिला तो
क्या जीवन टूट जायेगा ?
हार जाओगी तुम ,
नहीं, नहीं में नहीं हारी कभी
में नहीं मरूंगी ,मुझे तो अभी जीना हैं बहुत
जरुरी नहीं हैं सबको सब कुछ मिले
प्यार के बिना भी तो जीवन हैं |
अनु की दुनिया नहीं हैं प्यार !
वो तो हमेशा लड़ी हैं उस पहले तमाचे से लेकर अब तक
हां अब तक , इसीलिए तो तुम जिन्दा हो" अनु" आज भी
तुम साधरण नहीं हो ,इतना जान लो
वो तुम ही तो जो पहली बार अपने ही
टीचर का गलत बात पे पीटने पर हाथ पकड़ने वाली
और सदा ये कहने वाली ,
"की अन्याय करने से सहने वाला ज्यादा दोषी हैं |"
यूँ निराशा और मरने की बात करने वाली मेरी "अनु "नहीं हैं |
चूड़ियाँ,पायल और बिंदिया तेरे सपने नहीं रहे कभी ,
कँहा खो गयी मैदानों में दोड़नेवाली और
एक ऐ स आई वाली बनने की चाहत रखने वाली "अनु "
मुझे लड़ना हैं जिन्दगी तुझसे
ये कवितायें मेरी दुनिया नहीं ,
ये घर मेरी दुनिया नहीं ,
आँखे खोलो दुनिया में सब कुछ बाकी हैं"अनु "
हां में नहीं अब सहूंगी ,
किसी का कोई तमाचा ,कोई गाली या
साहनुभूति वाला प्यार
में खोजूंगी अपना रास्ता ,
ईशवर तुमने मुझे इसीलिए ज़िंदा रखा हैं
और सहने की शक्ति दी हैं शायद ,
अरे में तो बहुत किस्मत वाली हूँ
जिसके लिए पूरी दुनिया परिवार हैं
माँ , बेटी ,बहन सारे रिश्ते हैं |
खोलो अपनी आँखों को और देखो
एक नया जीवन तुम्हारा इंतजार कर रहा हैं |
सब कुछ होगा कोशिश करने वालो की होती नहीं हार |
हां निकल पड़ी हूँ में नयी जिन्दगी तेरी तलाश में ,
सारे बन्धनों को तोड़ बह चली हैं सरिता ,
अब नहीं जिन्दगीं तुम्हारे कदमो में बैठ के लगानी होगी अपनी लाचारी पे गुहार
हां निकल पड़ी हूँ में नयी जिन्दगी तेरी तलाश में ,
सारे बन्धनों को तोड़ बह चली हैं सरिता ,
अब नहीं जिन्दगीं तुम्हारे कदमो में बैठ के लगानी होगी अपनी लाचारी पे गुहार
हां मुझे पूरा करने हैं अपने को खड़ा करने के सपने ,
ये सरिता अब बह चली हैं
नही रुकगी ये अब |
अनुभूति
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें