मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

प्रणय गीत

लिखती हूँ प्रणय गीत तुम्हे प्रिय कान्हा ,
 ये स्नेह समन्दर मेरे नाम कर
करदिया कृतार्थ तुमने इस पगली को 
बिंदिया ,चूड़ी, पायल और कंगन से,
खनका दिया दीवानी को ,
कभी लजाऊ अपने को ही देखके ,
तो कभी बहक जाऊ तुम्हे सोच के ,
ये मंद- मंद प्रीत तुम्हारी ,
कर देगी  जीवन का मेरे नव सृजन |

अमलतास

 दूर से आकर,
कभी कोई छोटी ,
 कभी कोई बड़ी लहर
जेसे किनारे को टकरा जाती हैं 
और भीग जाता हैं 
किनारे का रोम -रोम 
कुछ ऐसे ही
बहुत दूर होकर भी,
मुझे भिगो जाती हैं 
  तुम्हारी मुस्कुराहट,,
उसकी गुनगुनाहटे 
 में किनारे की तरह खामोश भीग जाती हूँ 
उस असीम  स्नेह में अपने अंतस तक ,
तुम्हारा वो मुझसे इजाजत मांगना 
मेरे मन की श्रद्धा को ,
स्नेह को और अधिक 
मीठा कर देता हैं , बड़ा देता हैं |
स्नेह का ये घडा,
अब भर के बहने लगा हैं 
और मेरे इन सजल नैनों 
में जाग उठा हैं जीवन एक बार 
लगता हैं जीवन में,
एक बार फिर बसंत लौट आया हैं
और सज गया हैं जीवन ,
अमलतास कीतरह
पीले फूलों से
हाँ  वही अमलतास जँहा
दुष्यंत ने किया था,
शकुन्तला से प्रणय निवेदन
हां भीग जाती हूँ मैं
तुम्हारी खनकती मुस्कुराहटों  से
अपने अंतस तक |
अनुभूति






"राधे - कृष्ण "

न पूजा में खोजू ,
न किसी वन में 
न किसी गीता में ,
न रामायण में 
तुम तो मेरेरोम - रोम में बसे हो भगवान
तुमसा निश्छल कोई नहीं ,
ग्वालिन राधा जप्ती रही तो 
तुमने कर दी उस पगली की प्रीत अमर 
सोलह हजार एक सो आठ रानियों के,
स्नेह में नहीं साहस के कर सके वो तुलना 
उस पगली की निस्वार्थ  प्रीत से ,
इसी स्नेह केसम्मान  के लिए ,
संसार को तुमने दी  अपनी प्रीत 
अपना नाम
"राधे - कृष्ण "
और तुझसे बड़ा क्या
कोई निश्चल होगा मेरे भगवान 
जिस दिन मिल जाएगा 
उस दिन दुनिया से  से पहले में मिट जाउंगी 
लेते -लेते तुम्हरा नाम 
मेरे राधे -कृष्ण
मेरे घनश्याम !
{तुम्हारे श्री चरणों में तुम्हारी दासी अनुभूति }


तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................