मेरे कृष्णा !
हुयी नहीं ऐसी कोई भोर जब इस आत्मा ने ना
किया हो तेरे चरणों में
इन भीगी अखियों से पखारते तुझे प्रणाम .
मेरे प्रभु !
जेसा तू देता गया जीवन में हर क्षण में ,
मैं कभी हँसते हुए कभी रोते हुए सहती ही रही ,
मैंने नहीं मांगी तुझसे दुनिया की तरह कोई
बड़े -बड़े सपनो और खजानों की खाइश
सुनती थी तुझे पुकारो आत्मा से तू बैकुंठ छोड़ चला आता हैं
अब तो छलनी हैं मेरा रोम -रोम
हार चुके हैं ये भीगे नयन
रोती-रोती भी मेरी आत्मा तुझे पुकारती हैं
भयभीत हैं मेरा रोम -रोम ,
छलनी हैं अंतस
किस घडी तक और होगी
मेरे कृष्णा !
मेरे आराध्य !
मेरे माधव !
मेरी ये परीक्षाएं
ये संसार तो सिर्फ स्वार्थ ही खोजा करता हैं मुझमे
तो तो सब जानता हैं
अंतरयामी हैं ना
हर आत्मा का स्वामी हैं ना
फिर काहे को ,
मेरी आत्मा की निस्वार्थ भक्ति
से दूर तू कंहा खोया हैं
मुझे काहे नहीं ले चलता संग अपनी दुनिया में
अपनी भक्ति के अपने रूपों के आनंद में
कथाओं के माधुर्य में,
मेरे कृष्णा !
मुझे नहीं समझ आएगी
तेरी ये दुनिया
आत्मा में कुछ और लबो पे कुछ और
जेसे लोगो से बनी दुनिया
मुझे ले चल अब संग अपने
हाँ अपने बैकुंठ
मे करना चाहती हूँ
पग पखारना चाहती हूँ
तेरे मेरे माधव !
मेरे श्याम !
मेरे राम !
श्री चरणों में अनुभूति