तुम्हारी वो क्रूर बड़ी -बड़ी आँखे घुर रही थी उसे ,
समझ ही नहीं पायी वो तुम्हरा अंदेशा ,
कितनी भूख सिमटी हैं पुरुष
तुम्हारे अंतस में तन की ,
कितनी ही रातों तुमने किया हैं'
पत्नी के साथ भी बलात्कार ,
और दिन में किया हैं
उसकी भावनाओं का दमन
तुमने उसके मासूम हृदय पर कभी नहीं रखा ,
अपने स्नेह का हाथ ,
अपने स्वार्थ के लिए ,
सदा तुम खेलते रहे उसकी भावनाओं से ,
और बदले में दे दिया करते हो सहानुभूतियों का नाम ,
स्नेह के बदले भी तुम सहानुभूति उसके नाम करते हो ,
और अपनी आत्मा के सत्य से छिपाकर,
ये तोहमत उसके नाम करते हो ,
तन ,मन आत्मा हार चुकी होती हैं जब ,
एक पल में तब झटक लिया करते हो अपना दामन ,
हर फेसला तो तुम ही करते हो ,
उसका जिस्म ही सबसे बड़ी खूबसूरती होता हैं न पुरुष !
तुम्हारे लिए .
तुम्हारे लिए .
क्यों नहीं सालों साथ रहने के बाद भी,
झाँक नहीं पाते उसकी आत्मा में ?
तन तक ही क्यों सिमटी रह जाती हैं तुम्हारी भूख !
और छोड़ जाते हो उसकी देह पर अपनी वासनाओं के निशान,
निशान तो समय मिटा देता हैं ,
लेकिन आत्मा पे लगे जख्म,
सहानुभूति बन कर हमेशा हरे रहते हैं |
"अनुभूति "
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