शनिवार, 7 मई 2011

हे जगदीश्वर !


हे जगदीश्वर !
मेरे राम 
हजारो बार टूटी हूँ 
और बिखर के फिर जुडी हूँ
क्योकि मेरे कण-कण में सदा से तुम बसे हो ,
तुम्हारे निराकार रूप को देखा नहीं मेने 
प्रत्यक्ष देखने की चाह में जीवित  हूँ |

मेरे रोम -रोम के स्वामी , 
जगदीश्वर  मेरे पालनहार 
मेरे रक्षक भी तुम ही
और जो कामदेव बनके,
जीवन में आये वो भी तुम ही
हर साकार ,निराकार रूप में मेरे चारो और तुम ही हो 
मुझे नहीं चाहियें इस दुनिया के लोग 
झूठ औ र बनावट 
तेरी निस्वार्थ भक्ति और स्नेह 
और सहानुभूतियों में ही में जी सकती हूँ |
हे जगदीश्वर |
"अनुभूति "

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निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................