बुधवार, 7 दिसंबर 2011

अबोध मन का स्नेह

अबोध मन का स्नेह 
विशवास ,सत्य और समर्पण करता हैं ,
समय की भट्टी में तपता 
निखरता चलता हैं ,
प्रगाढ़ होता चलता हैं ह्रदय के आँगन में ,
आँखों से झरते अश्को में 
अपने राम की स्नेहमयी मूरत देखा करता हैं 
दूर बजती  बंसी के सुरों में 
अपने कृष्णा के मन की पुकार को वो पहचान लेता हैं
और अपने स्नेह -सागर की इस कृपा पे 
अपने स्नेह- अश्रुओं से अपने कृष्णा के चरण पखारता हैं
वो नहीं जानता किसी को ,
अपने स्नेह को ही राम और कृष्णा  माने,
वो इबादत किया करता हैं 
उस  अबोध स्नेह की पुकार पे 
तो कृष्णा भी चला आता हैं अपना बैकुंठ छोड़ के 
अपने कदमो में पड़े अपने स्नेह को 
अपने गले से लगाने 
हां अबोध  स्नेह जब पल्लवित होता हैं 
एक विशाल वट- वृक्ष ,
बनता हैं |
असीम  स्नेह का वट -वृक्ष 

श्री चरणों में अनुभूति


तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................