मंगलवार, 20 सितंबर 2011

मेरे राम ! तुम्हारी "रसात्मिका " विदीर्ण हो तुम्हे बस तुम्हे पुकारती हैं

मेरे राम !
मेरे कोस्तुभ स्वामी !
मेरे माधव !
आज ये विदीर्ण रुदय पुकारता हैं तुझे
ये आँखे आज फुट पड़ी हैं
तेरा स्नेह सागर मेरी आँखों से बरसता हैं
और बूंद -बूंद जब तेरे चरणों में गिरता हैं
अंतस थमता नहीं आज ,
एक तीक्ष्ण वेदना के साथ तुझे पुकारता हैं
मेरे राम !
तुम ही हो जो मेरी आत्मा का ज्ञानहो
तुम ही कहते हो अपनी मौन भाषा में
"तुम्हारे शब्द और आत्मा का सत्य ही घने अंधरे में प्रतीक्षा कर सकता हैं जीवन ने प्रकाश की "
और में मानती आई हूँ
हजारो बार मरी हूँ ,और ज़िंदा हुयी हूँ
अपनी आत्मा में बसे तुम्हारे सत्य के अक्ष्णु विशवास के साथ
में नहीं जानती !
कब ,केसे ,कँहा ?
तुम मेरे राम बनके ,गोविन्द बनके खड़े होगे
इतना जानती हूँ इस संसार में ये आत्मा तुम्हारी बावरी हैं
ये नहीं जानती रिश्ते नाते ,
नहीं मानती कोई बंधन ,
ये तो बस यूँ ही बरसती आँखों से ,
निस्वार्थ भावों से तुम्हे पुकारती हैं
बस तुम्हे पुकारती हैं ,
ये जानती हैं अपने वनवासी राम की आत्मा को
और कोस्तुभ स्वामी में बसी
आत्म आनंद अनुभूतियों की गहराइयों को भी
कृतार्थ किया हैं मेरा जीवन
मेरे राम !
तुमने जो चले आये हो इस पगली की आत्मा के धाम
बस यूँ ही आज फट पडा हैं आत्मा का
असीम स्नेह सागर
आज तुम्हे पुकारते -पुकारते
जी करता हैं पुकारो को
जोड़ दू और किसी घने वन में
तुम्हे पुकारते -पुकारते ही तुम्हारे चरणों में
तुम्हरा ही असीम स्नेह सागर
तुम्हारे ही पगों पे बूंद -बूंद गिराते -गिराते ही
तुम्हारी ही आत्मा में तुम्हारे ही अंश को कर दू विलीन !
इसी कामना के साथ इस भोर
में तुम्हारी "रसात्मिका "
तुम्हारे चरणों में होके नतमस्तक
करती हूँ इस जीवन के नव दिन तुम्हे प्रणाम !
सदा के लिए]
श्री चरणों अनुभूति



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