रविवार, 31 जुलाई 2011

स्नेह की चांदनी

मेरे चाँद !
यूँ न लुटा मुझपे अपने स्नेह की चांदनी

मुझे भी जिन्दगी से जीने की हसरत होने लगती हैं ,
में तो तेरे अक्स से ही किया करती हूँ स्नेह

और घंटों बाते हजार
मेरा आंचल छोटा हैं

तेरी इस धवल स्नेह चांदनी के आगे
केसे स्म्हालुंगी में इतना स्नेह सागर ,
इसीलिए में इतनी दूर से ही

तेरे कदमो में बैठ कर लेती हूँ

पांच वक्त की नमाज अदा

तेरे स्नेह की ये चांदनी ही क्या कम हैं

एक जनम के लिए

मुझे डर हैं अपनी किस्मत से

सोचती हूँ कभी क्या तुम उतर आओगें
मेरे लिए इस पगली के लिए इस जमीन पे भी

बस इसी आस में दिन ढलते हैं और रात होती हें
जिदगी यूँ ही दिन रात

उस दिन के इन्तजार में पूरी
होती हैं
के काश तुम एक दिन इस जमीन पे उतर आओ

अनुभूति




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