रविवार, 19 जून 2011

पत्थर की मूरत

मेरे कान्हा जी !
में ठीक हूँ ,
इस जमीन का इंसान बन कर ही ,
मुझे खाहिश भी नहीं की, में सूरज बनू 
में किसी के दिल का दिया बनू ,
बनू किसीके  लिए स्नेह का समुद्र,
तो निभा सकू हर वचन अपना
ये ही मेरी आरजू रही ,
संसार भटकता हैं
धन -दोलत और न जाने क्या -क्या
पाने की चाह में ,
कान्हा!
तेरे स्नेह के आगे सब बेकार 
सब -झूटे हैं रिश्ते 
आत्मा से आत्मा का रिश्ता ,
ही सबसे अमूल्य हैं,
मेरे लिए 
इस संसार की वाणी मेरी समझ से दूर 
हर इन्सान तो  भाग रहा इस धन की चाह में , 
मान की चाह में ,नाम चाहियें 
एक बार अभिमान छोड़
मेरे कान्हा  की शरण में जो आये ,
वो सब कुछ पा जाएँ 
मेने त्याग दिया सारा ,संसार,
एक सपना
मातुत्व तुम्हारे चरणों में मेरे कान्हा 
में क्या चाहूँ !
बस बीत जाएँ जीवन यूँ ही
तेरे कदमो की छावं में 
मेरे जीवन के हर रूप में
तुम ही समायें को कन्हाई 
इसीलियें में ठीक हूँ
इस जमीन का इंसान बन कर ही
ओ कान्हा!
तुम तो इस संसार के हर ह्रदय के स्वामी 
पर में तो बस तेरे चरणों की दासी
मेरा संसार ,तेरी भक्ति 
बसे रहो मेरे लिए इस पत्थर की मूरत में आप
इस संसार में न जाने  कितने लोगो को
आपका स्नेह और आशीष चाहियें  
कोस्तुभ धारी

धनी हूँ में ,
आप को  अपनी आत्मा में पाकर ही
मेरे कान्हा !
आप के श्री चरणों में अनुभूति

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