मंगलवार, 3 मई 2011

सहानुभूति

 हर क्षण याद आती हैं ,
  तुम्हारी सहानुभूति ,
  जब भी याद आती हैं लगता हैं ,
 मेरे तन से 
मेरे ह्रदय को उसकी शिराओ समेत ,
किसी ने जड़ से खीच के उखाड दिया हैं|
फिर भी एक तरफ मासूम मन ,
कहता हैं लिख डालू मन की सारी बाते 
और सोचता हैं हमेशा की तरह मुझे आकर तुम थाम लोगे 
और कहोगे अब नहीं , 
में तुम्हारे साथ हूँ "अक्ष्णु विशवास रखो"
लेकिन वो मासूम मन नहीं जानता तुम्हारी सहानुभूति 
वो तो निश्चल हैं ,निस्वार्थ हैं |
आत्मा तड़प उठी हैं और थाम लेती हैं मेरा हाथ 
नहीं , अब कोई सहानुभूति नहीं ,
तुमने तो बेजान बंजर पड़ी जमीन में 
आशाओ के अकुर बोयें ,
सुप्त  पड़ी धरती को फोड़ कर उसमे से 
सपनो का जल निकाल दिया ,
सब कुछ तो सुप्त था पहले 
तुम तो मुझे खुश देखना चाहते थे 
ये क्या दे गए तुम मुझे ?
खुद तुम्हे भी नहीं पता !
बिखेरदिया तुमने मुझे कण- कण
अपने अंतस का स्वामित्व नहीं देती 
कोई  यूँ ही किसी को 
और में बिना सोचे चली ही गयी
तुम्हे अपनी आत्मा आन्नद अनुभूतियों में
तुम्हे अपने साथ लिए |
सोचा ही नहीं की सब सिर्फ सहानुभूति हैं 
मेरे मस्तक का वो रक्त बिंदु मुझे क्यों करता हैं
 तुम्हारे स्वामित्व का एहसास
मेरी श्रद्धा , स्नेह सहानुभूति हैं ?
स्त्ब्ध हूँ सुनकर अपने स्वार्थी होने की बात ,
मुझे नहीं पता था बड़े लोगो की तरह,
उनकी सहानुभूति भी बड़ी होती हैं
अच्छा हैं में बहुत छोटी हूँ 
और में नहीं दे सकती ऐसी सहानुभूति
जब भी जमीन पे लेटे उस पंखे  की और देखती हूँ 
सोचती हूँ .बस ............
लेकिन दुसरे से ही क्षण में तुम्हे ,
अपने सामने  तमाचे के लिए हाथ उठाये
खडा पाती हूँ , क्यों शायद ?
क्यों की ये भी सहानुभूति  नहीं ,
मेरा वचन ,विशवास और 
तुम्हारे प्रति मेरी अनन्य  श्रद्धा हैं
तुम्हारा एक आदेश मेरे प्राणों पे भारी हैं
तुम हुकूमत के आदि हो ?
और में बंध गयी हूँ 
अपने मस्तक के उस रक्त बिंदु की तरह
सदा तुम्हारे आदेश के पालन के लिए 
जीवन भर |
क्या करू ये मेरी सहानुभूति  नहीं ,
जो भी हो न सोचा था न आज सोचा हैं बस जानती हूँ
जीवन की अंतिम परिणिति हैं |


"अनुभूति "









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