हमेशा की ये रीत रही हैं
हर फैसला ,
पुरुष ही करता आया हैं ,
और एक नारी,
उसे सदा स्वीकारती ही आई हैं
कभी कोई खिलाफत नहीं,
मौन सर को झुकाकर ,
सब सह लेना
ये ही तो शक्ति हैं |
पुरुष कँहा कभी
स्वीकार कर सका हैं,
अपने स्नेह को भी खुल के
कितना भी बड़ा कोई पुरुष क्यों न हो
वो सदा भागता ही रहा हैं
अपनी स्नेह स्वीकारोक्ति से
फिर भी एक नारी नहीं छोड़ सकती हैं सदा
अपनी आत्मा से उसका साथ
क्योकि वो कायर नहीं
सदा शक्ति बन पुरुष के आगे खड़ी हो देती हैं
उसका साथ |
सदियों से ये ही परिभाषा सुनती आई हूँ
चाहे सीता हो या राधा
हँस के मिटने का नाम ही शक्ति हैं
नारी कमजोर नहीं तुम्हारी तरह पुरुष
जो एक वचन दे ,छोड़ जाएँ
तुम्हरा साथ
जब सात जन्मो के लिए ,
एक जनम में ही वचन दे सकती हैं
तो क्या एक वचन के लिए
एक जनम भी नहीं निभा सकती
क्या समझते आये हो ?
पुरुष तुम उसे !
हाड - मांस का एक खिलोना
जिसके मन के द्वार जब चाहे खुलवा लिए ,
जब चाहा तन खोल दिया
जब चाह आत्मा बिंध दी
मत समझो इतना भी कमजोर
जिस दिन शक्ति अपने रूप में आई
तुम कर न सकोगे अपना सामना खुद
ये तुम्हारी आत्मा भी जानती हैं ओ पुरुष !
इसीलिए ही शायद शिव को शक्ति का क्रोध शांत करने
लेटना पडा था उसी शक्ति के कदमो में|
अनुभूति
1 टिप्पणी:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता . नारी तो आदि शक्ति स्वरूपा है . सुँदर रचना .
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