गुरुवार, 26 मई 2011

ये ही मेरा जीवन तप हैं !


कान्हा जी!
तेरे स्नेह के आगे नतमस्तक हूँ|
कितना स्नेह जीवन में भर दिया हैं !
एक सपना अधूरा था,
आप ने अपने होठों को ,
अपनी बांसुरी से लगा के पूरा कर दिया हैं |
तेरी मधुर मुरली मेरी साँसों में जीवन रस घोले ,
जितनी बार बंद करू आँखों को
मेरा कोस्तुभधारी मुझे पुकारे ,
तेरे मन में होगी पीड़ा में कँहा समझ सकू !
मुर्ख , अज्ञानी ,नादान
में तो सदा से ही करती रही अपनी ही वाणी ,
मेने नहीं तेरी निस्वार्थ स्नेह की कदर जानी ,
मेरे कान्हा ,
अब तो में तेरी दीवानी भी नहीं ,
बन गयी हूँ चरणों की दासी बस !
मेरा तप , तेरी भक्ति ही ,
जीवन आरधना मेरी
बसी रहे तेरी मुरली की मधुर वाणी
मेरे जीवन में बस !
ये ही मेरा जीवन तप हैं ,
मेरे कोस्तुभ धारी !

अनुभूति

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