मंगलवार, 3 मई 2011

स्वपन तरु

स्वपन तरु 

जब भी छोड़ संसार की बात सो जाना चाहती हूँ 
मेरी ममता मुझे खीच ही लाती हैं 
तुम्हारे मासूम स्नेह लोक में 

तुम्हे देख अभिभूत होती,
एक टक देखती ही जाती हूँ,
तुम्हारी प्यासी सी मुस्कुराहट को
तुम्हारे हाथो के उस नर्म ,मासूम स्पर्श को 
तुम्हारी  उस भीनी खुशबु को 
तुम्हारी नन्ही -नन्ही उँगलियों को 
सब कुछ बेहद प्यारा होता हैं 
और में तुमको अपनी बाहों में उठाकर 

अपने सीने से लगा लेती हूँ 
एक अजीब सी हुक उठती हैं 

सुप्त पड़ा ममत्व जाग उठता हैं ,
लेकिन अगले ही पल,
मेरा एहसास पूर्ण हो ,
मेरी आँखे खुल जाती हैं ,
और में घबरा के उठ जाती हूँ 
और रो पड़ती हूँ फुट -फुट के 
और सोचती हूँ ये केसा स्वपन हैं 
जो कभी पूरा नहीं हो सकता,
क्यों चला आता हैं ?
मेरे स्वपन  -तरु के नीचे हर रात
सत्य स्वीकार 
क्यों नहीं कर लेती में की में नहीं बन सकुंगी माँ ?
क्यों देखना चाहती हूँ 
इस दुनिया से संसारी लोगो की तरह एक मधुर स्वपन
मेरी दुनिया में इन सब की कोई जगह नहीं 
क्यों नहीं स्वीकार लेती आत्मा
क्यों चली आती हूँ में इस स्वपन तरु के नीचे हर रात ?
मेरी किस्मत में नहीं लिखा प्रभु तुने ये अधिकार 
क्या करू कोई शिकायत तुझसे?
इसीलिए इस स्वप्न तरु के नीचे स्वपन में ही जी लेती हूँ
"अनुभूति "



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