बुधवार, 4 मई 2011

चरण दासी

मेरे कान्हा बावरी हूँ  तुम्हारी 
तुम्हे देख के सोचती हूँ 
तुम्हारी कठोरता में भी पल -पग सच झलकता हैं |
तुम्हारे शब्दों में , 
तुम्हारे एहसासों  में भी .
तुम्हारे यथार्थ में भी,
तुम्हारी कल्पनाओं में भी ,
इतना सजीव ,इतना सरल ,
कितनी  निष्कपट आत्मा हैं तुम्हारी कान्हा !
तुम्हे देख के अद्भुत स्नेह से मदोहाश मेरी आँखे हो जाती हैं,
और सोचती हूँ मेरे गिरिधर तेरी भक्ति मेरे नाम लिखी हैं|
"जिसके पास कुछ नहीं होता उसी के पास सब कुछ होता हैं |"
ये ही कहो  हो न मेरे घनश्याम 
अब तक नहीं जानती थी 
जानने लगी हूँ तो आत्म विभोर हूँ 
तुम्हारे इस आलोकिक स्नेह से
आज पाया हैं अपनी वास्तविक ,
इतनी ख़ामोशी में ,
इतनी वेदना में भी मुस्कुराहट चली आई हैं इन होठो पे 
आत्म आनंद अनुभूति में जो पाया हैं तुम्हरा साथ 
सच संसार के उस लोक से इस लोक में ,
तुम मेरी साँसों में बस गए ओ कान्हा
मेरी हर आत्माअनुभूति  सिर्फ तुम जानो 
जी करता हैं अब बहार बन खिल जाऊ 
क्या करू ? क्या कहू ?
देख तुम्हे गिरिधर
कानो में गूंजे  मीठी मुस्कुराहट तोरी
अपने से लजाऊ ,
या तुम्हारे चरणों में ही गिर जाऊ 
भूल के आत्मा का हर द्वेष
तेरी खुशबु में बस जाऊ ,
तेरे चरणों की दासी सदा 
ऋणी रहगी तेरी
जो हर पल की दी हैं आत्म आन्नद अनुभूति
अब , मुझे यूँ देख मुस्काओ मत 
लाज आती हैं ,
तुम्हरा ये रूप सलोना देखकर
ओ कान्हा , 
तुम्हारी चरण पादुकाओं 
को पोछने का अधिकार मेरे नाम लिखा हैं |
इस तुच्छ  संसार में कितना अनुपम काम लिखा हैं ,
केसे समजाऊ इस दुनिया को ?
तेरी भक्ति मेरा कितना अनुपम  स्नेह मेरे नाम लिखा हैं |
में मिट जाऊ तन ,मन रोम - रोम  से होकर तुझे पे बलिहारी 
हो कभी कोई जो विपदा आ जाए मुझपे सारी|
इससे ज्यादा क्या मांगू में 
बन स्वार्थी मेने मांग लिया तेरी चरण सेवा का अधिकार |
ओ कान्हा 
इस चरण दासी को करना ,
सदा यूँही अपने 
चरणों की सेवा में  स्वीकार |






अनुभूति 

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