मंगलवार, 31 मई 2011

कलयुग में तुम्हारी जरुरत हैं कान्हा !

स्नेह की
बड़ी -बड़ी परीभाषाएँ
बोलते सूना हैं पडा हैं ,देखा हैं,लोगो को
और अंत में सब को सत्य से मुँह मोड़ते ही देखा हैं |

क्या ये ही हैं स्नेह ?
या फिर किताबो के पन्नो से लिखना ही,
जीवन सत्य हैं
उसमे शब्दों के सच की आत्मा कँहा हैं
कँहा हैं स्नेह सागर |

मेरे कृष्णा !
तुम्हरा स्नेह सागर खाली होगया हैं अब ,
जिसकी जगह भरी हैं कठोरता ने ,
सहानुभूतियों ने , स्वार्थी होने के नामो ने ,

कँहा हो 
कान्हा जी आप 
इस संसार में , 
सब कुछ तो झूठा हैं यंहा 
एक नहीं सब रिश्ते झूटे हैं |
सब लुटने और मन को तीर चुभोने लगे हैं


कँहा हो कान्हा ?
स्नेह के सागर इस संसार के 
कलयुग में तुम्हारी जरुरत हैं कान्हा
अपने बैकुंठ से चले भी आओ ,
चले भी आओ ,

अनुभूति














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