मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

फ़रिश्ते



खुद पे नहीं यकीं जितना ,
उतना हम तुमपे यकीं रखते हैं |

तुम समझ सको या न समझ सको 
हम तुम्हारे ही कदमो पे अपनी जिन्दगी को रखते हैं |

बहुत मुश्किल हैं ,हालत-ए-दौर में जिन्दगी को समझना ,
इसे ही अपना नसीब मान कर हम ,तेरी बंदगी करते हैं |

खुदा ढूढने निकली थी मैं  इस दुनिया में 
कोई एक खुदा मिला हो तो बात भी हो|


यंहा तो,
खुदा यूँ मेहरबां, 
हम पे ,
के हर कदम ,
एक
नए फ़रिश्ते से मुलाकात होती हैं |


-- अनुभूति 

5 टिप्‍पणियां:

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

ati sundar यंहा तो,
खुदा यूँ मेहरबां,
हम पे ,
के हर कदम ,
एक
नए फ़रिश्ते से मुलाकात होती हैं |

दिगम्बर नासवा ने कहा…

इन्सान के रूप में अगर खुदा मिल जाए यो फिर बात ही क्या है ....
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना ..

संजय भास्‍कर ने कहा…

बसंत पंचमी के अवसर में मेरी शुभकामना है की आपकी कलम में माँ शारदे ऐसे ही ताकत दे...:)

संजय भास्‍कर ने कहा…

कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
माफ़ी चाहता हूँ

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत दिलकश रचना है आपकी...लिखती रहें...


नीरज

तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................