सोमवार, 29 मार्च 2010

तुम और तुम्हारी आहटे,
 मन के सारे दरवाजे खोल देती है 
और 
 जी उठती हूँ मै एक बार फिर ,
खिलखिलाकर मुस्कुरा देता है जीवन 
तुम्हारी आहटोको करीब पाकर .
मिलो के फासलों पे भी तुम्हारी खुशबू
मुझको विचलित कर देती है 
अच्छा ,बुरा साथ और दुरी इन सब से दूर आ चुकी हूँ मै ,
तुम्हारे साथ चलते चलते इस अनजान डगर पे
और 
अब कोई डर नहीं मुझको ,
क्योकि अब साथ हो तुम मेरे
याने खुद खुदा चला आया है मुझको थामने 
और 
मै बे खोफ बड़ चली हूँ तुम्हारी आहटो के करीब 
क्योकि मै जानती हूँ 
मेरे मन के मानस तुम ही दोगे मुझको अस्तित्व 
तुम्हारी पत्नी .प्रेमिका ,या मीरा का स्नेह नहीं मेरे मन मै 
मै तो एक खुली और साफ़ हवा के झोके की तरह 
तुम्हे अपनी  मुस्कुराहट  

देना चाहती हूँ ,सदा की तरह ही |







































2 टिप्‍पणियां:

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut achi kavita he

जी उठती हूँ मै एक बार फिर ,
खिलखिलाकर मुस्कुरा देता है जीवन
http://kavyawani.blogspot.com

रामेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

शालीनता में सजावट और शब्दों का जाल इसके अलावा मन का विचलन चिन्तन से छलावा !

तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................